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सोमवार, 25 अप्रैल 2022

कोरोना काल 1

मैने  दिसंबर 2019 के अंतिम हफ्ते में शायद समाचार पत्रों में और अपने बड़े साले साहब से सुना और पढ़ा कि कोरोना नाम की एक बीमारी 🤔💭 चीन से चल रही है। यह भी कि बीमारी बहुत तेजी से दुनिया भर में फैल रही है।जनवरी बीतते हुए दो बातें हुईं ,केरल के रास्ते भारत मे COVID-19 का आधिकारिक  प्रवेश हो गया और WHO ने COVID-19 को pandemic मान लिया। 
      याद नहीं आ रहा है कि 2020 मे बच्चों के लिए स्कूलों को होली से पहले ही बंद कर दिया गया था या बाद में पर  22 मार्च 2020 और 24 मार्च का दस मिनट का PM का संदेश जरूर याद है। 22 मार्च का सेल्फ इंपोजड कर्फ्यू  और 25 मार्च से 14 दिवसीय भारत भर मे लॉक डाउन की PM की घोषणा डराने वाली थी। बहुत डिटेल्स में जाने से विषय से भटकने का खतरा है, जिनको ज्यादा की जिज्ञासा है उनके लिए COVID-19 की टाइम-लाइन का लिंक अंकित है। covid 19 time line Indiahttps://en.m.wikipedia.org/wiki/COVID-19_pandemic_in_India#:~:text=The%20first%20cases%20of%20COVID,the%20country%20on%2025%20March.
   दिमाग में अलग अलग तरह के विचार आ रहे थे। पहला तो लॉक डाउन मे घरेलू जरूरत कैसे  पूरी हो यानि दूध, दवा, सब्जी  आदि का जुगाड़ और दूसरा किसी emergengcy मे डॉक्टर या अस्पताल तक कैसे पहुंचे। खैर 25 की शाम ढलते- ढलते चारों ओर सब्जी और फल के ठेले इतने आये कि उधर से मन निश्चिंत हुआ। रह गयी बात दूध और दवा -डॉक्टर की ,असली लडाई यहीं पर थी ☹️। शाम होते होते सब्जी फल से निबटने के बाद दूध की तरफ़ धावा हुआ। अपने दूध वाले के ठिकाने तक डरते हुए चले। बिल्कुल युद्ध क्षेत्र का आभास हो रहा था। इससे पहले कभी इतना प्रचंड खौफ  और मशीनरी की सख्ती  महसूस नहीं की गयी थी,कम से कम मेरे द्वारा तो नहीं ही। यहां तक कि 1990 के मंडल आयोग विरोधी आंदोलनों, 1991 के अयोध्या राम मंदिर (तत्कालीन ढाँचा) के राजनीतिक सामाजिक संघर्ष में भी इतना तनाव नहीं था। यह एक अलग तरह का अंजान डर था। कैसी बीमारी है, क्या होता है। ना लक्षण पता ना ईलाज। चारों तरफ डर और सन्नाटा। TV के चैनल्स अलग अलग तरह के facts दिन भर देते रहते, स्वस्थ आदमी भी चौकन्ना होकर अपने लक्षण मिलान करता रहता था।
            इस सब के बीच किसी तरह डॉक्टर का     लिखा पर्चा जेब मे रखकर और अपने पूर्व छात्र     श्री आशुतोष गर्ग से संपर्क साधकर उनकी   फार्मेसी  की ओर निकल पड़े। रास्ता सकुशल पार करके ऐन चौराहे पर बैरियर से रूबरू होना पड़ा। मोटरसाइकिल वही  छोड़कर पैदल दवा खाना पहुंचना हुआ । दवा लेकर वापसी हुई तो जिला हाकिम अपने लाव लश्कर के साथ चौराहे पर धर पकड़ मे जुटे हुए थे । किसी तरह दवा और पर्चा दिखाकर रुखसत हुआ। घर आकर  बाहर ही वाहन को नहलाया और खुद भी नहाया। इसके बाद ही घर मे घुसने की "परमिसन" मिली 🤓। आज ये बात भले ठिठोली लगे लेकिन उस समय यह सब बहुत जरूरी लगता था। 
           यहाँ तक तो उस दौर का एक पक्ष है जो सिर्फ अपने और अपनों से जुड़ा था। स्कूली छुट्टियां और लॉक डाउन मतलब आना जाना बंद। खैर मेरे लिए यह बहुत संकट का विषय नहीं था। आलसी स्वभाव का हूँ। किताबों और मोबाइल में अच्छा खासा समय बीत जाता था। सोचा कि कुछ दिनचर्या ही सुधारी जाए ,तो यूटूब पर योग के वीडियो देखकर कुछ आसनों का चुनाव हुआ और बाकायदा  45-50 मिनट की व्यायाम कक्षा चलने लगी। इसमे मेरी बिटिया नव्या जी भी बाद में प्रेरित होकर शामिल हो गयीं। 
           लेकिन जैसा कि ऊपर कहा यह तो अपना और अपनों का किस्सा है। दूसरा किस्सा उनका है जो अपने घरों से सैकड़ों कोस दूर थे, रोजी रोटी के लिए । कुछ अकेले थे तो कुछ सपरिवार थे। यह भारत की आबादी का एक बहुत बड़ा कार्य बल था, जिसे हम आज कल की औद्योगिक भाषा मे human-resource कहते हैं। कल कारखानों के अचानक बंद होने पर इनके लिए अजीब स्थिति आ गई। बड़ी और नामी कंपनियों मे छँटनी शुरू हो गयी। उपरी कार्यबल तो अपनी बचत और फैमिली support system के बल पर काफी दिन तैर गया लेकिन निचले स्तर पर लोग बहुत परेशान हुए। कुछ जगह कल कारखानों के मालिकों ने भोजन और रहने का इंतजाम तो किया, लेकिन लोगों मे डर अनजानी बीमारी के खतरे को लेकर अधिक था। इसलिए बड़ी संख्या मे लोगों ने अपने घरों को लौटना शुरू किया। जिससे जैसे बन पड़ा, वो वैसे ही निकल पड़ा। यह एक अभूतपूर्व  घटना थी, जो स्वतंत्र भारत के इतिहास मे विभाजन के बाद शायद ही कभी इस कारण से हुई हो। आगे फिर कभी 🙏🙏।। 

साहित्य और समकालीन समाज

आज़,जैसी अफरा तफरी मची हुई है।उस संदर्भ में कुछ पुराने पन्नों पर उभरे हुए प्रासंगिक निबंध मिल जाते हैं, जो आज भी सोचने के लिए बाध्य करते हैं...