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मंगलवार, 10 मई 2022

प्रकृति, पानी, बिजली और हम

3 मई से शुरू करके 8 मई तक सब कुछ बड़ा अस्त व्यस्त रहा। कुछ बहुत जरूरी व्यक्तिगत छोटी यात्राएँ और 5 मई की देर रात से होने वाली धुंआधार तूफानी बारिश। बड़ा नुकसान बारिश और हवाओं ने किया। हमारे गाँव- नुमा मुहल्ले में ही 3 पेड़ और 5 बिजली के खंभे उखड़ गए। आफत और रात भर तनाव कि सुबह सभी को अपने काम- धन्धे पर निकलना होगा। राम- राम कर रात बीत गयी। सुबह बाहर आने पर मंजर बहुत खराब। बिजली रात 3 बजे से गायब, कब तक आना है इसका पता नही, रास्ते सब बंद। हल्की बूँदें अब भी पड़ रही थीं ।  
     

शाम बीत गयी और अंधेरा होने लगा। चिंता अब रोशनी और पानी की हुई। गाँव के पैरोकार जुटे। बिजली महकमे के जिम्मेदार मौके पर लाए गए। काम शुरू होते- होते 7 बज गए। बीच- बीच में छोटे मोटे, कुछ पुराने और कुछ परिस्तिथि से उपजे विवाद, उभरते रहे। कुछ पुरनिया किस्म के लोग- उम्र और अनुभव से- शांत कराके काम आगे बढ़वाते रहे। लब्बो-लुबाब यह कि कर करा के, रात दो बजे बिजली आई। सोने लायक माहौल बना। फिर भी काफी काम रह गए जिसमें से कुछ अपने और अपनों के श्रम से पूरे हुए। इसी सब में रविवार बिता दिया गया। लगा कि अब भी प्रकृति के आगे हम बहुत बौने हैं। मालिक नहीं, इसके अनुचर हैं हम। अनुचर ही बने रहने मे कल्याण है। महादेव।। 🙏🙏

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2022

कोरोना काल: संघर्ष और उसके बाद

कोरोना से संबंधित पिछली बात-चीत मे 2020 में  virus से उपजी  इस महामारी, इससे जुड़ी आशंकाओं और डर के बारे मे कुछ कहा गया था।कोरोना काल 1 https://mkdubey210.blogspot.com/?m=1
अब आगे की बात। 
   यह दौर नई तरह की समस्याओं और उनको तुरंत सुलझाने का था। पूरा का पूरा विश्व अपनी पूरी ताक़त से सिर्फ COVID-19 को एड्रेस कर रहा था। भारत अपनी बड़ी भारी जनसंख्या और सीमित संसाधनों के कारण एक अलग स्थिति में था। जल्दी ही पूरा सरकारी अमला, हरक़त में लाया गया। बड़े और छोटे सभी कर्मचारी- अधिकारी वर्ग काम में लग गया या लगा दिया गया। इसी सब मे हमारा भी दिनचर्या सुधार कार्यक्रम भंग हुआ और प्रवासी यात्रियों को ढोने वाली trains से जुड़े दस्तावेजों के तैयार करने मे मुझे और मेरे कई साथियों की 🛤️रेलवे स्टेशन सुल्तानपुर पर तैनात किया गया। काम रिस्की लगता था और थकाने वाले समय तक चलता था। 👮पुलिस बल, चिकित्सा विभाग, राजस्व विभाग के अधिकारी, कर्मचारी भी मुस्तैद रहते थे। कंप्लैसेंसी की कोई गुंजाइश नहीं थी। बात ही ऐसी थी। उतरने वाले यात्रियों को देखकर गौतम बुद्ध के वैराग्य लेने की परिस्थिति याद आ गई। इतने कष्ट और फिर भी जीवन और इससे जुड़े काम धन्धे चलते रहते हैं। खैर, बुद्ध, राज- पुरुष थे, इसलिए वैरागी हो गए। कहा गया है की विवेकानंदजी भी अपने गुरु जी से  परिवार को हमेशा मोटा अनाज और मोटा वस्त्र मिलते रहने का वचन लेकर ही नरेन से विवेकानंद बने। यहाँ हमलोग
तो ठहरे साधारण संसारी प्राणी- भोलाराम- सो नून, तेल और लकड़ी का ही जुगाड़ करने में जी जान से लग गए। अब चाहे पढ़ाने का काम हो या covid-19 की रोकथाम मे जुड़ने का, अपने- अपने समय में दोनो ही जरूरी था। 
ऊपर दिए हुए कुछ चित्र जो कि इंटरनेट से साभार मिले हैं , उस दौर में कॉम्यूट करने, और उससे जुड़ी दिक्कतों को कुछ हद तक दिखा पा रहे हैं।एक चीज और है जो हमलोगों को ऐसे डरावने समय में भी डटे रहने की हिम्मत देती थी, वह है, साथियों के साथ लगे रहना और अपनी रोजी रोटी, मकान, दुकान छोड़कर वापस लौटे प्रवासियों का कष्ट, जिसके सामने हम लोग "रीलेटिवली" आराम से थे। रेलवे स्टेशन की इस पहली covid🦠कालीन ड्यूटी के बाद फिर पूरे साल ऐसी ड्यूटी करने की एक चेन बन गयी। कभी CMO ऑफिस, कभी COVID- 19 कंट्रोल रूम में और अक्सर मोहल्लों व गाँव-मजरों मे जाकर बीमारी के लक्षण वाले लोगों को पहचान कर उनकी रिपोर्ट संबंधित अधिकारियों को देना, जिससे उनके इलाज और quarantine करने की व्यवस्था हो सके। Quarntine centers की ड्यूटी भी की गई। गरज ये कि साल बीतते-बिताते covid-19 से जुड़ी सारी सावधानी, शब्दावली और त्रासदी समझ में आने लगी। ऐसी हर ड्यूटी अपने साथ एक नई दुनियादारी की समझ,खुद और लोगों के लिए एक नई जिम्मेदारी और संवेदना को बढ़ाती गई ,पर हाँ खतरा अभी तो मौजूद था ही।। 🙏🙏

साहित्य और समकालीन समाज

आज़,जैसी अफरा तफरी मची हुई है।उस संदर्भ में कुछ पुराने पन्नों पर उभरे हुए प्रासंगिक निबंध मिल जाते हैं, जो आज भी सोचने के लिए बाध्य करते हैं...