सोमवार, 4 जुलाई 2022

साहित्य और समकालीन समाज

आज़,जैसी अफरा तफरी मची हुई है।उस संदर्भ में कुछ पुराने पन्नों पर उभरे हुए प्रासंगिक निबंध मिल जाते हैं, जो आज भी सोचने के लिए बाध्य करते हैं कि एक सभ्यता के रूप में हमारे सफ़र में कैसे-कैसे पड़ाव आए और भविष्य में कैसे-कैसे पड़ाव आएंगे। ऐसे ही एक पड़ाव पर कभी हमारी संस्कृति और समाज संविधान-सभा में हुई बहसों से मुखातिब हुई थी, वो भी तब,जब स्वतंत्रता धार्मिक विभाजन के आधार पर हमें सौंपी गई थी। बिल्कुल आहत , रावण से लड़ कर गिरे हुए जटायु की तरह- मुक्ति दिलाने वाले राम के प्रतीक्षा में। परन्तु मिली संविधान विशेषज्ञ विद्वानों की अंग्रेजपरस्त सोच वाले विचार और उनसे बंधी समाज नियं‌‌त्रक विधियां। ऐसे में श्री निर्मल वर्मा का यह निबंध धर्म विषयक हमारे समकालीन समाज और विद्वानों की पूर्वाग्रह से ग्रस्त मानसिकता को चुनौती देने की भूमिका बनाने का आह्वान करता है।आप सब के लिए हिन्दी समय पोर्टल से उद्धृत यह निबंध प्रस्तुत है।




 आज के सामाजिक आर्थिक वा संवैधानिक परिप्रेक्ष्य में सामयिक लेख।



निबंध


धर्म और धर्मनिरपेक्षता

निर्मल वर्मा


स्वतंत्रता के 50 वर्ष बाद यदि हमें धर्मनिरपेक्षता के अर्थ के बारे में आशय स्पष्‍ट है तो अवश्य ही धर्म के प्रति हमारे मन में अनेक उलझनें आज भी हैं जिनका समाधान हम नहीं कर पाए हैं। उस धर्म के बारे में हमारी अवधारणा क्या है जिसके प्रति हम निरपेक्ष होना चाहते हैं और जब तक हम इस प्रश्न का उत्तर नहीं देते तब तक हमारे समाज में सेक्यूलरिज्म की सारी बहस कोई विशेष अर्थ नहीं रखेगी। हर सभ्यता में धर्म का अपना विशेष स्वरूप और अर्थ होता है। क्रिश्चन सभ्यता, इस्लामी सभ्यता, यूनानी सभ्यता, इन समस्त सभ्यताओं में मनुष्य का ईश्वर की लौकिक शक्तियों के साथ संबंध अलग-अलग रूपों में प्रकट होता है। भारतीय सभ्यता में धर्म क्या वह भूमिका संपन्न करता था जैसा उन सभ्यताओं में जिनका जिक्र हमने अभी किया है? उसी धर्मनिरपेक्षता की बहस आज हमें इस प्रश्न से प्रारंभ करनी चाहिए।


ऐतिहासिक रूप से धर्म की दो अवधारणाएँ उपस्थित रही हैं, एक वह जो मनुष्य और संस्कृति के संबंध को पवित्र मानती है और जब यह स्वीकार करती है कि मनुष्य सृजन चेतना का संवाहक है इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि वह सृष्टि के केंद्र में है। भारतीय सभ्यता महानतम स्तर पर पवित्रता के इस सार्वभौमिक बोध से अनुप्राणित होती रहेगी। सृजन चेतना का संवाहक होने के नाते मनुष्य का एक प्रकृति के प्रति दायित्व-बोध है और दूसरे समाज के अन्य सदस्यों के प्रति। धर्म के परिवेश में मनुष्य शक्तिशाली होने के कारण शोषक नहीं सिर्फ अपने दायित्व-बोध के प्रति सजग होना है। इसके विपरीत धर्म की एक दूसरी अवधारणा भी है जो अपनी वैधता किसी मसीहा की वाणी या किसी विशिष्ट पुस्तक के वचनों से प्राप्त करती है। वह एक ऐसी वैधता लिए होती है, जिस पर न संदेह प्रकट किया जा सकता है और न जिसे चुनौती दी जा सकती है। धर्म की यह अवधारणा अपने इर्द-गिर्द सार्वभौमिक सत्य का एक दायरा खींच लेती है। इस दायरे के बाहर जो लोग हैं, प्राणी हैं, जीव-जगत है, वे 'अन्य' की श्रेणी में आते हैं। यह अन्य तभी इस दायरे में प्रवेश कर पाता है जब वे दायरे के भीतर रहनेवाले लोगों की आस्थाओं और विश्वासों को स्वीकार करने के लिए तैयार हों। यही कारण है कि धर्म की यह अवधारणा भारतीय परंपरा के धर्म-बोध से बहुत भिन्न है। इसमें दूसरों को केवल धर्म-परिवर्तन के द्वारा ही अपना बना सकते हैं। उन्हें तभी ग्रेस प्राप्त हो सकती है जब अपने ईश्वर को छोड़कर दूसरे के ईश्वर को अपना समझ सकें।


कहना न होगा कि पिछले 50 वर्षों में धर्मनिरपेक्षता या सेक्यूलरिज्म का संबंध धर्म की इस दूसरी अवधारणा से संबंधित था। उस अवधारणा से नहीं जो भारतीय सभ्यता के केंद्र में थी। यह एक ऐतिहासिक विडंबना ही मानी जाएगी कि हमारे सत्ता गुरू शासकों ने स्वतंत्रता के बाद भारतीय जनसाधारण को एक ऐसे धर्म से निरपेक्ष होने के लिए बाध्य किया जिसका उनसे कोई लेना-देना नहीं था और इस प्रक्रिया में उन्हें एक ऐसे सेक्यूलर समाज-व्यवस्था में रहने के लिए विवश किया जहाँ स्वयं उनकी धार्मिक आस्थाएँ एक हाशिए की चीज बनकर रह गई। धर्म-निरपेक्षता इस अर्थ में एक भारतीय के लिए आत्मनिर्वासन की अवस्था बनकर रह गई।


भारतीय सभ्यता में मनुष्य और प्रक्रति, मनुष्य और उसकी दुनिया एक-दूसरे से अलग नहीं थी, वहाँ मनुष्य का जीवन सेक्यूलर और धार्मिक खंडों में विभाजित नहीं था, वहाँ इस तरह का विभाजन भी कृत्रिम और अर्थहीन था। इस विभाजन के कारण ही मनुष्य का संपूर्णता बोध और प्रकृति की पवित्रता दोनों ही दूषित होते हैं। गांधीजी ने 'हिंद स्वराज्य' में औद्योगिक सभ्यता के विकल्प में एक ऐसे समाज की परिकल्पना की थी जहाँ स्वराज्य और स्वधर्म के बीच कोई अंतर्विरोध नहीं रहता। स्वराज्य वे तत्व हैं जिनमें मनुष्य सिर्फ राजनीतिक या आर्थिक प्राणी न रहकर एक संपूर्ण मनुष्य की हैसियत से भाग लेता है। स्वतंत्रता के बाद हमने जिस तथाकथित धर्मनिरपेक्ष समाज का निर्माण किया उसमें इस संपूर्ण मनुष्य के लिए कोई स्थान नहीं। ऊपरी चिंतन में हम भारतीय हैं, भीतर के (अंडरग्राउंड) अँधेरे में हम हिंदू, मुस्लिम और सिक्ख हैं। अँधेरे में कोई विश्वास पनपता नहीं, सड़ता है इसलिए जब कभी वे बाहर आता है तो अपने सहज आत्मीय स्वरूप में नहीं बल्कि एक विकृत दमित भावना के रूप में। समय-समय पर होनेवाले सांप्रदायिक दंगे हमें उस अँधेरे की झलक दिखाते हैं जहाँ एक सेक्यूलर समाज ने धर्म को फेंक दिया है। क्या आज का भारतीय जिसमें केवल हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख ही नहीं, वे लाखों आदिवासी शामिल हैं जिनके अपने निजी धार्मिक विश्वास हैं। एक आत्मनियोजित मन:स्थिति में नहीं जीता जहाँ पश्चिम की आधुनिकता में ढली सत्ता कदम-कदम पर उन्हें एक ऐसे परिवेश में जीने के लिए विवश करती है जिसका उनके धार्मिक भाव-बोध की मर्यादाओं से कोई संबंध नहीं है।


जीसस ने ईश्वर और सीजर के बीच जो भेद किया था वैसा विभाजन भारतीय मानस में कभी मौजूद नहीं रहा इसलिए राजनीति तो दूर, हमारे देश का भूगोल भी पौराणिक स्मृतियों में स्पंदित होता है। गंगा महज एक नदी नहीं जैसे हिमालय सिर्फ एक पहाड़ नहीं, वाराणसी और वृंदावन महज शहर नहीं, मनुष्य का अतीत संग्रहालयों में बंद नहीं है, न ही उनके देवता यूनानी देवताओं की तरह किसी पौराणिक काल के स्मृति चिन्ह हैं। मिथक और पौराणिक स्मृति और वर्तमान जीवन और देवता और मनुष्य आज भी एक साथ रहते हैं। सैकड़ों विश्वासों, आस्थाओं, स्मृतियों और संस्कारों का यह संगम केवल एक ऐसी संस्कृति में संभव हो सकता है जिसमें संपूर्ण मनुष्य की परिकल्पना निहित रहती है।


अत: आज प्रश्न यह नहीं है कि राजनीति को धर्मावलंबी होना चाहिए या धर्मनिरपेक्ष। क्योंकि दोनों संज्ञाएँ आधुनिक भारतीय की खंडित मानसिकता का बोध कराती हैं। हमारे देश में ऐसे लाखों लोग हैं जिन्हें एक समय अपने जीवन की अर्थवत्ता नानक और कबीर, विवेकानंद, गांधी और परमहंस में मिल जाती थी। आज वही लोग साँई बाबा, भगवान रजनीश और भिंडरवाला के पास जाते हैं जिनका संबंध न आस्था से है और न धार्मिक बोध से। धर्म का झरना सूखने के कारण लोग अपनी आध्यात्मिक प्यास बुझाने के लिए सिर्फ गंदे नाले के पास जा सकते हैं जो सेक्यूलर समाज के बीचों-बीच बहता है।


धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत प्रगति और विकास की छलनाओं के साथ जी रहा है। स्वतंत्रता के बाद हम अपने को यह सुविधाजनक छलावा देते आए थे कि अपने जीवन से धर्म को निष्कासित करने पर ही हम विकास के रास्ते पर आगे बढ़ सकते हैं। नेहरू युग का यह सबसे सुंदर स्वप्न था कि यदि हम पश्चिमी देशों की तरह अपने देश में विराट पैमाने पर औद्योगीकरण कर सकें तो देश की समस्त जातीय समस्याएँ अपने आप हल हो जाएँगी। भारत की सब पार्टियाँ दक्षिणपंथी हों या वामपंथी, कम-से-कम इस आर्थिक आदर्श के मामले में एकमत हैं। आज विकास की छलनाएँ हमारे सामने अपने पूरे खोखलेपन के साथ प्रकट हो गई हैं किंतु उससे जुड़ी धर्मनिरपेक्षता की छलना से मोहभंग आज भी नहीं हो पाया है। दोनों ही हमारी मानसिक गुलामी के दो पक्ष हैं। इस तरह की मानसिक गुलामी और गरीबी हमने अंग्रेजी शासन के भीतर भी महसूस की थी। कम-से-कम उस समय गुलामी में जीते हुए भी हमारे भीतर यह सब शक्तियाँ और आशाएँ, निष्ठाएँ जागृत हुई थीं जो हमें अपनी परंपरा के प्रति स्वाभिमानी और भविष्य के प्रति आस्थावान बनाती थीं। हमारा स्वतंत्रता आंदोलन इस आस्था के कारण ही लाखों लोगों को अपनी गरीबी और विपन्नता के बावजूद इतने व्यापक रूप से आलोढ़ित कर पाया था। बीसवीं शती के आरम्भिक तीन दशकों में भारतीय जीवन के कर्म और चिंतन के स्तर पर जो असाधारण सृजनशीलता का दौर आया था वह आज अविश्वसनीय जान पड़ता है। गांधी, तिलक, रवींद्रनाथ टैगोर, श्री अरविंद के नाम याद आते हैं। उनकी तुलना में आज हमारी आध्यात्मिक अवस्था और व्यक्तिगत कार्य-प्रणाली कितनी फूहड़, अश्लील और नकली हो गई है क्या इसकी कल्पना हमारे पूर्वज कर सकते थे?


अत: आज प्रश्न धर्मनिरपेक्षता बरक्स धार्मिक कट्‍टरता का नहीं है। आधुनिक युग में दोनों की ही अमानुषिक बर्बरता जीवन के हर क्षेत्र में अभिव्यक्त हुई है। यह कोई संयोग नहीं था कि हमारी शताब्दी में सेक्यूलर विचारधाराएँ कम्यूनिज्म या फासिज्म सबसे भयानक संहार के अपराधी हैं और उनके ये अपराध उन कट्‍टर धार्मिक विचारधाराओं के समतुल्य ही हैं जिन्होंने क्रिश्चेनिटी और इस्लाम के विस्तार के लिए एशिया, अमरीका और अफ्रीका की सैकड़ों संस्कृतियों को ध्वस्त कर दिया। लातीनी अमरीका में स्पानी और क्रिश्चन मिशनरीज दोनों ही वहाँ के आदिवासियों के विनाश के उत्तरदायी थे। आधुनिक युग की ये क्या उल्लेखनीय विडंबनाएँ नहीं हैं कि ऊपर से दिखनेवाली दो विपरीत विचारधाराएँ धार्मिक अंधता और धर्मनिरपेक्ष राज्य-शक्तियाँ दोनों ने ही मनुष्य को उसे आंतरिक और आत्यंकित सत्य से विचलित किया है? बीसवीं शताब्दी के अंत में हमें पूछना चाहिए कि धर्म तो कैसा धर्म, किस धर्म के प्रति निरपेक्षता? जब तक हम इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाएँगे तब तक हम धर्म को सांप्रदायिकता से अलग नहीं कर पाएँगे। हिंदुस्तान में धार्मिक परंपरा का बोध जो लोगों की जीवन समरसता में रचा-बसा है, हमें उसे छद्‍म सांप्रदायिकता से अलग करना होगा जो बाहर से आरोपित की जाती है। इस दृष्‍टि से भारतीय चरित्र के लिए धर्मनिरपेक्षता या सेक्यूलरिज्म असहज और आरोपित है। यह बात विरोधाभास जान पड़े किंतु एक धर्मावलंबी भारतीय के लिए धर्म को सांप्रदायिकता में संकुचित करना उतना ही अस्वाभाविक है जितना धर्म के प्रति निरपेक्ष रहना। सांप्रदायिकता और सेक्यूलरिज्म दोनों ही सहज सांप्रदायिक मर्यादा के अपदस्थ और भ्रष्‍ट रूप हैं जिनका भारतीय संस्कृति के परंपरागत मनीषा से कोई संबंध नहीं है। यदि हमारे देश के हिंदू इस मनीषा के अधिक निकट रहे हैं तो इसलिए कि उन पर कभी ईसाई और मुसलमान की तरह किसी धर्म प्रतिष्ठान का प्रभुत्व नहीं रहा किंतु दूसरा बड़ा कारण यह भी रहा है कि भक्तिकाल से आज तक भारतीय संस्कृति और धर्म के बीच किसी तरह का कोई अंतराल नहीं हुआ। जब कभी भारतीय संस्कृति में ठहराव और संकीर्णता के लक्षण दिखाई दिए तभी उसी संस्कृति के भीतर उसके विरोध में कबीर, नानक, रामकृष्‍ण परमहंस, विवेकानंद और गाँधीजी ने हिंदू धर्म को आत्मदूषित संकीर्णता से उबारकर एक तरह भारतीय परंपरा से जुड़ने के लिए उत्प्रेरित किया।


हम अक्सर अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक सांप्रदायिकता की बात करते हैं, मुझे यह बात ही विचित्र लगती है। प्रश्न संप्रदायों की छोटी-बड़ी संख्या का नहीं बल्कि एक ऐसी धर्मसंपन्न संस्कृति का है जिसमें सिक्ख, हिंदू, मुसलमान ही नहीं, हजारों-लाखों आदिवासी भी रहते हैं। ये सब संप्रदाय और जातियाँ हजारों वर्षों से एक विशिष्ट भौगोलिक परिवेश में रहते आए हैं, सिर्फ रहते नहीं आए बल्कि इन्होंने एक-दूसरे के जातीय, सामाजिक और धार्मिक चरित्र को लेन-देन के सहिष्णु व्यवहार से अद्‍भुत रूप से समृद्ध बनाया हैं। यदि भारत की भौगोलिक अखंडता के प्रति मेरा इतना गहरा लगाव है तो महज देश-भक्ति या राष्ट्र-भावना के कारण नहीं बल्कि इसलिए कि बिना इस भौगोलिक परिवेश के ये उप-जातियाँ, विविध धर्म-संप्रदाय संस्कृतियाँ एकसूत्रित समूह का अंग न हो पातीं, जिसे हम भारतीय सभ्यता का नाम देते हैं। आज जब दूसरे देश में धर्म के फंडामेंटलिज्म जोश में एक इस्लामी देश ईरान में मुसलमानों का ही संहार होता है, भूतपूर्व कम्यूनिस्ट देशों में केंद्रीय सत्ता छोटे-छोटे राष्ट्रों की संस्कृति और भाषा को नष्‍ट करती थी, पश्चिम देशों में जहाँ 18वीं-19वीं शताब्दी में एशियाई-अफ्रीकी संस्कृतियों को भ्रष्ट किया है वहाँ आज भी एक 'पिछड़ा हुआ' देश है जिसके भौगोलिक परिवेश में अनेक धर्मावलंबी आदिवासी संप्रदाय और भाषाएँ एक साथ जीवित रह सकती हैं, मेरे लिए यह अनमोल और मूल्यवान सत्य है। चूँकि इस सभ्यता में हिंदू बहुसंख्यक हैं तो क्या इसकी रक्षा करना केवल हिंदुओं का कर्त्तव्य है? सच्ची बात तो यह है कि हम इसे किसी भी नाम से कहें हिंदुस्तानी संस्कृति, सनातन धर्म या भारतीय सभ्यता, किसी अन्य धार्मिक ढाँचे के भीतर इस तरह का अद्‍भुत सहअस्तित्व संभव नहीं हो सकता था।


स्वतंत्रता के बाद हमारे सत्तारूढ़ वर्ग ने जो नीतियाँ बनाई वे भारतीय सभ्यता की इसी सांस्कृतिक परंपरा के प्रति घोर अवज्ञा और अज्ञान का परिणाम थीं। दुनिया में शायद ही किसी देश में बौद्धिक दिवालिएपन और आत्मविस्मृति की मिसाल कहीं देखने को मिले जो हमें भारत में दिखाई देती है। अपने तथाकथित 'धर्मनिरपेक्षी' (जिसे धर्म अज्ञान कहना अधिक उचित होगा) उत्साह में इस सत्तारूढ़ वर्ग ने पश्चिम की भोंडी नकल करते हुए भारत के सार्वजनिक जीवन से इस परंपरागत सभ्यता-बोध को प्रतिक्रियावादी और पिछड़ा हुआ मानकर बहिष्कृत कर दिया। शायद 19वीं शताब्दी के वे क्रिश्चन मिशनरी भी ये देखकर हैरान रह जाते कि जिस धर्मबोध को वे भारतीय मनीषा से निष्कासित करने में असफल रहे थे उसे स्वतंत्रता के बाद हमारे राजनेताओं ने किस हिकारत और वितृष्‍णा से तिरस्कृत कर दिया। इससे ज्यादा भयंकर और त्रासद घटना क्या हो सकती है कि जिस राष्ट्रीय चेतना को गाँधीजी, श्री अरविंद, तिलक और विवेकानंद जैसे मनीषियों ने धर्म का आधार बनाया था उन्हीं को एक ऐसे समय में भुला दिया गया जब भारत एक विशिष्ट सांस्कृतिक इकाई की हैसियत से पश्चिम की स्वार्थग्रस्त भौतिक सभ्यता को चुनौती दे सकता था। लेकिन अगर ध्यान से देखें तो यह कोई विशेष आश्चर्य की बात भी नहीं थी। यह एक तरफ अंधाधुंध औद्योगीकरण करने की लिप्सा और दूसरी ओर एक संस्कृति-शून्य परंपरा-बोध से रिक्त सेक्यूलर व्यवस्था का निर्माण करने की अनिवार्य परिणति थी। जिस तरह विकास के नाम पर इस वर्ग ने मनुष्य और प्रकृति के सहज संबंध को खंडित किया ठीक उसी तरह एक तथाकथित सेक्यूलर राज्यसत्ता के नाम पर उसने एक भारतीय के धर्म-संस्कार और उसके सभ्यता-बोध के बीच जो संबंध सदा से चल रहा था उसे भी खंडित किया। यदि आर्थिक स्तर पर प्रकृति मनुष्य के शोषण का साधन बनी तो राष्ट्रीय स्तर पर मनुष्य की धार्मिक आस्था का शोषण हर सेक्यूलर पार्टी अपने निहित स्वार्थों के लिए कर सकती थी। अल्पसंख्यकों को राष्ट्र के भीतर हमेशा अल्पसंख्यक रखना ताकि वे अपने को हमेशा असुरक्षित महसूस करते रहें और इस असुरक्षा-बोध को अपनी वोटों से भुनाते रहें जिसका परिणाम आज हम भुगत रहे हैं। ये संरक्षण और सुरक्षा के नाम पर भारत के सामाजिक-राजनीतिक जीवन को हमेशा के लिए विभाजित रखने की ही स्वार्थपरक मानसिकता थी।


अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि धर्मनिरपेक्षता की नीति भारत को एक राष्ट्रीय राज्यसत्ता (नेशन स्टेट) में परिणत करने के लिए आवश्यक थी, किंतु क्या धर्म के आधार पर भारतीयों को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक में विभाजित करने की नीति किसी सशक्त राष्ट्रीय अस्मिता को जन्म दे सकती है? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि स्वतंत्रता आंदोलन के कर्णधारों के सामने राष्ट्रीय राज्य-व्यवस्था का महत्व कोई कम था किंतु उनकी राष्ट्र की अवधारणा पश्चिम के राष्ट्रों से सर्वथा भिन्न थी जिन्होंने अनेक छोटी जातियाँ, उपजातियाँ और लोकसंस्कृतियों को नष्ट करके ही अपनी राष्ट्रीय अस्मिता स्थापित की थी। इसके विपरीत भारत की राष्ट्रीय अस्मिता दूसरों के विनाश पर नहीं, अपनी सभ्यता के विविध चरित्र से बनी हैं किंतु भारतीय संस्कृति का बहुलवादी 'प्लूरिस्टिक' चरित्र हमारे धर्मनिरपेक्षीय नेताओं के दृष्टिकोण से बहुत अलग है जिसके अनुसार भारतीय एकता को सिर्फ अनेकता में देखा जाता है। अनेकता के भीतर अंतर्निहित जो एकनिष्ठ सभ्यता-बोध है उसे अनदेखा कर दिया जाता है। यह कुछ वैसा ही है कि हम किसी वृक्ष की विभिन्न शाखाओं को तो देखें लेकिन इन शाखाओं को प्रश्रय देनेवाली मूल शक्ति को भुला दें। क्या है यह मूल शक्ति भारतीय सभ्यता की? यह मूल शक्ति इस विषय में निहित है कि सत्य को पाने के लिए अनेक रास्ते हो सकते हैं, लेकिन कोई एक रास्ता सत्य को अपनी बपौती मानकर दूसरों का तिरस्कार नहीं कर सकता। यही कारण है कि भारतीय सभ्यता में सैकड़ों देवी-देवता हैं, उपनिषद् और महाकाव्य हैं, साधू-संत और ऋषि-महात्मा हैं लेकिन कोई एकमात्र 'धर्मपुस्तक' या धर्म संस्था ऐसी नहीं है जो अपने सत्य को बलपूर्वक दूसरों पर आरोपित करने का दावा कर सके। ये एक ऐसी सभ्यता है जिसे अपनी लोकतांत्रिक मनीषा के लिए पश्चिम की सेक्यूलर व्यवस्थाओं पर निर्भर नहीं रहना पड़ता, वह सहज रूप से उसके स्वभाव में पहले से ही अंतर्निहित है।


स्वतंत्रता के 50 वर्ष बाद हम जिन कटु अनुभवों से गुजरे हैं उनके आधार पर हमें इसलिए धर्म और सेक्यूलरिज्म की अवधारणाओं का बुनियादी परीक्षण करना होगा और यह तभी सार्थक होगा जब हम इसे अपने परंपरागत सभ्यता-बोध के आधार पर काने का साहस जुटा सकें। धार्मिक फंडामेंटलिज्म तो बुरा है ही सेक्यूलर फंडामेंटलिज्म उससे भी बुरा है, क्योंकि ये पश्चिमी बुद्धिवाद (रेशनलिज्म) की आड़ में एक तरह की अंधविश्वासी कट्‍टरता उत्पन्न करता है और जिसका सामना आधुनिक दुनिया में इसलिए करना मुश्किल हो जाता है क्योंकि इसमें विज्ञान और प्रगति की विचारधाराएँ इतनी शक्तिशाली हैं। साम्यवाद एक ऐसी ही प्रलोभन भरी आकर्षक विचारधारा थी। क्या यह अपने में एक आश्चर्यजनक चीज नहीं है कि कम्यूनिज्म के विघटन होने के बाद हमारे देश के सभी वामपक्षी बुद्धिजीवी और राजनेता रातों-रात सेक्यूलरिस्ट बन गए। कम-से-कम हमारे देश के साम्यवादियों को तो इतिहास से थोड़ी शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए थी क्योंकि उन्होंने ही धर्म के आधार पर जिन्ना साहब की दो नेशन सिद्धांत जैसी घातक विचारधारा का समर्थन किया था जिसका परिणाम देश के विभाजन में हुआ था।


स्वतंत्र भारत में विभाजन की ये प्रक्रिया इसलिए जारी रखना कि उससे चुनावों में वोट हासिल हो सकते हैं, कुछ समय के लिए तो लाभप्रद हो सकती है लेकिन देश के हितों के लिए इससे अधिक भयानक, आत्मघाती नीति शायद कोई और नहीं हो सकती। पाकिस्तान का निर्माण देश के लिए दुर्भाग्य तो था ही, स्वयं भारतीय मनुष्य के लिए सबसे बड़ा अभिशाप था क्योंकि विभाजन से एक खंड के मनुष्यों को धर्म के आधार पर दूसरे खंड के मनुष्यों के अतीत, भाषा और इतिहास से बाँट देना न केवल अप्राकृतिक था बल्कि असंभव भी। जमीन को बाँटा जा सकता है, इतिहास और अतीत की सामूहिक सम्पदा को नहीं और इस तरह का जब नकली बँटवारा होता है तो उसका घाव उस जाति की आत्मा में नासूर की तरह रह जाता है। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि कश्मीर संस्कृति और इतिहास को आज पुन:धर्म के आधार पर भारतीय सभ्यता से अलग करने का प्रयास किया जा रहा है। कश्मीर, जो हमेशा से भारतीय संस्कृति और सभ्यता का अंग रहा है क्या उसे केवल इस आधार पर बाकी देश से अलग किया जा सकता है कि उसमें मुसलमान बड़ी संख्या में रहते हैं? भारतीय सभ्यता-बोध को यह श्रेय जाता है कि उसने विभाजन के बाद भी पाकिस्तान की नकल में भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित नहीं किया। आज प्रश्न यह है कि क्या हम स्वतंत्र भारत में इस सभ्यता-बोध को राष्ट्र-निर्माण का आधार बना सकते हैं। हमने पिछले 50 वर्षों में जिस समाज-व्यवस्था को प्रगति, औद्योगीकरण और धर्मनिरपेक्षता के आधार पर निर्मित किया दुर्भाग्यवश वह उस आदर्श से बहुत दूर है जिसे कभी इस शताब्दी के आरंभ में हमारे धार्मिक और राजनीतिक मनीषियों ने देखा था। आज हालत यह है कि हमारा समाज 'धर्मनिरपेक्ष' नहीं, इन सब मानवीय, आस्थावान, जीवनदायी मूल्यों के प्रति निरपेक्ष है जो भारतीय सभ्यता का मूल लक्षण था। जिस तरह धर्म का निकृष्ट रूप संकीर्ण सांप्रदायिकता है उसी तरह धर्मनिरपेक्षता का विकृत रूप सनकी स्वार्थपरक मूल्यहीनता। दोनों ही सांस्कृतिक मूल्यों से रिक्त और परंपरा-शून्य हैं। पिछले 50 वर्षों में भारत में जिस भौतिक परजीवी आधुनिक जीवन शैली का विकास हुआ है वह विकास और प्रगति की तरफ नहीं जाते बल्कि स्वयं उसके भीतर सांप्रदायिक असहिष्णुता और धर्मनिरपेक्षी मूल्यहीनता के विषैले तत्व जन्मे और पनपे हैं। क्या हम एक ऐसे राज्य-तंत्र का निर्माण कर सकेंगे, जिसमें भारतीय परंपरा का बोध - जिसे हमने भारतीय सभ्यता का धार्मिक भाव-बोध माना है - उसे अपनी मांस-मज्जा में रूपायित कर सकें?


 साभार:  हिन्दीसमय पोर्टल





बुधवार, 18 मई 2022

मासोत्तं ज्येष्ठ मासे

 सनातन परंपरा और काल- गणना में  तीसरा महीना है ज्येष्ठ का । आम उत्तर भारतीय गाँव की भाषा मे यह जेठ कहा जाता है।  आमतौर पर इस माह की शुरुआत बैशाख पूर्णिमा के बाद की पहली तिथि से होती है ,कहीं-कहीं इसका प्रारंभ अमावस के बाद की पहली तिथि से माना गया है।मतलब यह कि कैलेंडर यदि पूर्णिमान्त  हुआ तो पहला,नहीं तो दूसरे तरीके से महीना शुरू होता है। हमारे यहाँ कैलेंडर  बनाने और दिन,वार व समय को जानने  और गिनने की पद्धति चंद्रमा की चलने की गति से नापी जाती है। ग्रेगेरियन कैलेंडर में महीने चंद्र आधारित कैलेंडर से अलग तरीके से चलते हैं। उसके हिसाब से यह महीना मई- जून का होता है, यानि कि भीषण गर्मी। वैसे तो यह कोई नई बात नहीं है, लेकिन अबकी साल तो गर्मी अप्रैल यानि वैशाख से ही तेज पड़ने लगी थी। ऐसे मे ऐसी सघन छाया सुख देती है ।

      आप सब ज्यादा सोचें न, यह वृक्ष- राज बड़ यानि बरगद  ही हैं, हमारे विद्यालय प्रान्गण के। विशाल, गंभीर और शीतल। इनकी बड़ी महिमा है जेठ महीने में और हमारे स्कूल कैंपस में भी। गर्मी की बिना बिजली वाली दुपहरिया यहाँ अखरती नहीं है। 😊

वापस आते हैं ज्येष्ठ मास पर , यह महीना कठिन गर्मी  का है ही ,बड़े इम्पोर्टेन्ट, कठिन व्रत- पर्वों का भी है। सनातन आस्था के सबसे बड़े स्नान- पर्व मे से एक गंगा-दशहरा इसी जेठ महीने की वैक्सिंग-मून (उजाला पक्ष) की दसवीं तिथि को पड़ता है। माना गया है कि इसी तिथि को भागीरथ की तपस्या सफल हुई थी और देवी गंगा का स्वर्ग से पृथ्वी पर अवतरण हुआ है🙏। बड़ी संख्या में उत्तर भारत में लोग नदी स्नान और दान करते हैं इस दिन। बोलो गंगा मैय्या की जय। 

 इसके ठीक अगले ही दिन निर्जला- एकादशी का पर्व पड़ता है। आम वैष्णव गृहस्थ उत्तर भारतीय के लिए सभी चौबीस एकादशियों मे यह सबसे ज्यादा पुण्य देने वाली मानी जाती है। इस दिन का व्रत, दान, जप सबकुछ-यदि शुद्ध भाव से किया जाए- मोक्ष देने वाला माना जाता है। ।।ओम नमो भगवते वासुदेवाय।। 

अगला नंबर है वट-सावित्री पर्व का जो कि ज्येष्ठ की अमावस को पड़ता है। द्वापर मे श्री कृष्ण ने अर्जुन से भले ही यह कहा हो कि- वृक्षों में मैं अश्वथ, यानि,पीपल हूँ- लेकिन इससे वट राज की महिमा कतई  कम नहीं हो जाती है  ।यह व्रत सनातन परंपरा को मानने वाली विवाहित महिलाओं के लिए बहुत महत्व रखता है। इसका लेजेंड सती सावित्री के अपने पति के प्राण 🍠 यमराज से वापस लौटा लाने की पौराणिक कथा से जुड़ा है। आधुनिक नारीवादी, नास्तिक जन माफ करें लेकिन उतर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान और विंध्य पार कर गुजरात, महाराष्ट्र तक की हिंदू विवाहिताएँ अपने पति की लंबे, निरोग जीवन के संकल्प के साथ इस व्रत को रखती हैं। हाँ अब पति भी उनको हौसला देने के लिए साथ मे व्रत करें तो यह परंपरा को आधुनिकता का सकारात्मक अवदान माना जाए 🙂। 

तो यह महीना जेठ का कठिन तो है ,लेकिन इसक़ो बिताने की जो सनातन परंपरा बताई गई है वह बड़ी साईंटिफिक् है । जीवन के पांच  बेसिक तत्वों- आग, हवा, पानी, धरती और आकाश- मे से तीन, जल(गंगा दशहरा और निर्जला- एकादशी) और धरती व (प्राण) वायु को (वट- सावित्री का पर्व) इस महीने में उत्सव के रूप में रोज़ के जीवन में शामिल करता है। जल,जमीन और वायु को जीवन से कनेक्ट करने के बहुत से त्योहारी  कारण देता है और बात- बात पर एंवीरोंमेंट् का हल्ला जोतने वालों को भी यह याद दिलाता है वह सब हो जाएगा, चुपचाप, बशर्ते हम बेसिक्स पर डटे  रहें। जय हो मासोत्तम ज्येष्ठ मास की।। 🙏🙏

 



मंगलवार, 10 मई 2022

प्रकृति, पानी, बिजली और हम

3 मई से शुरू करके 8 मई तक सब कुछ बड़ा अस्त व्यस्त रहा। कुछ बहुत जरूरी व्यक्तिगत छोटी यात्राएँ और 5 मई की देर रात से होने वाली धुंआधार तूफानी बारिश। बड़ा नुकसान बारिश और हवाओं ने किया। हमारे गाँव- नुमा मुहल्ले में ही 3 पेड़ और 5 बिजली के खंभे उखड़ गए। आफत और रात भर तनाव कि सुबह सभी को अपने काम- धन्धे पर निकलना होगा। राम- राम कर रात बीत गयी। सुबह बाहर आने पर मंजर बहुत खराब। बिजली रात 3 बजे से गायब, कब तक आना है इसका पता नही, रास्ते सब बंद। हल्की बूँदें अब भी पड़ रही थीं ।  
     

शाम बीत गयी और अंधेरा होने लगा। चिंता अब रोशनी और पानी की हुई। गाँव के पैरोकार जुटे। बिजली महकमे के जिम्मेदार मौके पर लाए गए। काम शुरू होते- होते 7 बज गए। बीच- बीच में छोटे मोटे, कुछ पुराने और कुछ परिस्तिथि से उपजे विवाद, उभरते रहे। कुछ पुरनिया किस्म के लोग- उम्र और अनुभव से- शांत कराके काम आगे बढ़वाते रहे। लब्बो-लुबाब यह कि कर करा के, रात दो बजे बिजली आई। सोने लायक माहौल बना। फिर भी काफी काम रह गए जिसमें से कुछ अपने और अपनों के श्रम से पूरे हुए। इसी सब में रविवार बिता दिया गया। लगा कि अब भी प्रकृति के आगे हम बहुत बौने हैं। मालिक नहीं, इसके अनुचर हैं हम। अनुचर ही बने रहने मे कल्याण है। महादेव।। 🙏🙏

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2022

कोरोना काल: संघर्ष और उसके बाद

कोरोना से संबंधित पिछली बात-चीत मे 2020 में  virus से उपजी  इस महामारी, इससे जुड़ी आशंकाओं और डर के बारे मे कुछ कहा गया था।कोरोना काल 1 https://mkdubey210.blogspot.com/?m=1
अब आगे की बात। 
   यह दौर नई तरह की समस्याओं और उनको तुरंत सुलझाने का था। पूरा का पूरा विश्व अपनी पूरी ताक़त से सिर्फ COVID-19 को एड्रेस कर रहा था। भारत अपनी बड़ी भारी जनसंख्या और सीमित संसाधनों के कारण एक अलग स्थिति में था। जल्दी ही पूरा सरकारी अमला, हरक़त में लाया गया। बड़े और छोटे सभी कर्मचारी- अधिकारी वर्ग काम में लग गया या लगा दिया गया। इसी सब मे हमारा भी दिनचर्या सुधार कार्यक्रम भंग हुआ और प्रवासी यात्रियों को ढोने वाली trains से जुड़े दस्तावेजों के तैयार करने मे मुझे और मेरे कई साथियों की 🛤️रेलवे स्टेशन सुल्तानपुर पर तैनात किया गया। काम रिस्की लगता था और थकाने वाले समय तक चलता था। 👮पुलिस बल, चिकित्सा विभाग, राजस्व विभाग के अधिकारी, कर्मचारी भी मुस्तैद रहते थे। कंप्लैसेंसी की कोई गुंजाइश नहीं थी। बात ही ऐसी थी। उतरने वाले यात्रियों को देखकर गौतम बुद्ध के वैराग्य लेने की परिस्थिति याद आ गई। इतने कष्ट और फिर भी जीवन और इससे जुड़े काम धन्धे चलते रहते हैं। खैर, बुद्ध, राज- पुरुष थे, इसलिए वैरागी हो गए। कहा गया है की विवेकानंदजी भी अपने गुरु जी से  परिवार को हमेशा मोटा अनाज और मोटा वस्त्र मिलते रहने का वचन लेकर ही नरेन से विवेकानंद बने। यहाँ हमलोग
तो ठहरे साधारण संसारी प्राणी- भोलाराम- सो नून, तेल और लकड़ी का ही जुगाड़ करने में जी जान से लग गए। अब चाहे पढ़ाने का काम हो या covid-19 की रोकथाम मे जुड़ने का, अपने- अपने समय में दोनो ही जरूरी था। 
ऊपर दिए हुए कुछ चित्र जो कि इंटरनेट से साभार मिले हैं , उस दौर में कॉम्यूट करने, और उससे जुड़ी दिक्कतों को कुछ हद तक दिखा पा रहे हैं।एक चीज और है जो हमलोगों को ऐसे डरावने समय में भी डटे रहने की हिम्मत देती थी, वह है, साथियों के साथ लगे रहना और अपनी रोजी रोटी, मकान, दुकान छोड़कर वापस लौटे प्रवासियों का कष्ट, जिसके सामने हम लोग "रीलेटिवली" आराम से थे। रेलवे स्टेशन की इस पहली covid🦠कालीन ड्यूटी के बाद फिर पूरे साल ऐसी ड्यूटी करने की एक चेन बन गयी। कभी CMO ऑफिस, कभी COVID- 19 कंट्रोल रूम में और अक्सर मोहल्लों व गाँव-मजरों मे जाकर बीमारी के लक्षण वाले लोगों को पहचान कर उनकी रिपोर्ट संबंधित अधिकारियों को देना, जिससे उनके इलाज और quarantine करने की व्यवस्था हो सके। Quarntine centers की ड्यूटी भी की गई। गरज ये कि साल बीतते-बिताते covid-19 से जुड़ी सारी सावधानी, शब्दावली और त्रासदी समझ में आने लगी। ऐसी हर ड्यूटी अपने साथ एक नई दुनियादारी की समझ,खुद और लोगों के लिए एक नई जिम्मेदारी और संवेदना को बढ़ाती गई ,पर हाँ खतरा अभी तो मौजूद था ही।। 🙏🙏

सोमवार, 25 अप्रैल 2022

कोरोना काल 1

मैने  दिसंबर 2019 के अंतिम हफ्ते में शायद समाचार पत्रों में और अपने बड़े साले साहब से सुना और पढ़ा कि कोरोना नाम की एक बीमारी 🤔💭 चीन से चल रही है। यह भी कि बीमारी बहुत तेजी से दुनिया भर में फैल रही है।जनवरी बीतते हुए दो बातें हुईं ,केरल के रास्ते भारत मे COVID-19 का आधिकारिक  प्रवेश हो गया और WHO ने COVID-19 को pandemic मान लिया। 
      याद नहीं आ रहा है कि 2020 मे बच्चों के लिए स्कूलों को होली से पहले ही बंद कर दिया गया था या बाद में पर  22 मार्च 2020 और 24 मार्च का दस मिनट का PM का संदेश जरूर याद है। 22 मार्च का सेल्फ इंपोजड कर्फ्यू  और 25 मार्च से 14 दिवसीय भारत भर मे लॉक डाउन की PM की घोषणा डराने वाली थी। बहुत डिटेल्स में जाने से विषय से भटकने का खतरा है, जिनको ज्यादा की जिज्ञासा है उनके लिए COVID-19 की टाइम-लाइन का लिंक अंकित है। covid 19 time line Indiahttps://en.m.wikipedia.org/wiki/COVID-19_pandemic_in_India#:~:text=The%20first%20cases%20of%20COVID,the%20country%20on%2025%20March.
   दिमाग में अलग अलग तरह के विचार आ रहे थे। पहला तो लॉक डाउन मे घरेलू जरूरत कैसे  पूरी हो यानि दूध, दवा, सब्जी  आदि का जुगाड़ और दूसरा किसी emergengcy मे डॉक्टर या अस्पताल तक कैसे पहुंचे। खैर 25 की शाम ढलते- ढलते चारों ओर सब्जी और फल के ठेले इतने आये कि उधर से मन निश्चिंत हुआ। रह गयी बात दूध और दवा -डॉक्टर की ,असली लडाई यहीं पर थी ☹️। शाम होते होते सब्जी फल से निबटने के बाद दूध की तरफ़ धावा हुआ। अपने दूध वाले के ठिकाने तक डरते हुए चले। बिल्कुल युद्ध क्षेत्र का आभास हो रहा था। इससे पहले कभी इतना प्रचंड खौफ  और मशीनरी की सख्ती  महसूस नहीं की गयी थी,कम से कम मेरे द्वारा तो नहीं ही। यहां तक कि 1990 के मंडल आयोग विरोधी आंदोलनों, 1991 के अयोध्या राम मंदिर (तत्कालीन ढाँचा) के राजनीतिक सामाजिक संघर्ष में भी इतना तनाव नहीं था। यह एक अलग तरह का अंजान डर था। कैसी बीमारी है, क्या होता है। ना लक्षण पता ना ईलाज। चारों तरफ डर और सन्नाटा। TV के चैनल्स अलग अलग तरह के facts दिन भर देते रहते, स्वस्थ आदमी भी चौकन्ना होकर अपने लक्षण मिलान करता रहता था।
            इस सब के बीच किसी तरह डॉक्टर का     लिखा पर्चा जेब मे रखकर और अपने पूर्व छात्र     श्री आशुतोष गर्ग से संपर्क साधकर उनकी   फार्मेसी  की ओर निकल पड़े। रास्ता सकुशल पार करके ऐन चौराहे पर बैरियर से रूबरू होना पड़ा। मोटरसाइकिल वही  छोड़कर पैदल दवा खाना पहुंचना हुआ । दवा लेकर वापसी हुई तो जिला हाकिम अपने लाव लश्कर के साथ चौराहे पर धर पकड़ मे जुटे हुए थे । किसी तरह दवा और पर्चा दिखाकर रुखसत हुआ। घर आकर  बाहर ही वाहन को नहलाया और खुद भी नहाया। इसके बाद ही घर मे घुसने की "परमिसन" मिली 🤓। आज ये बात भले ठिठोली लगे लेकिन उस समय यह सब बहुत जरूरी लगता था। 
           यहाँ तक तो उस दौर का एक पक्ष है जो सिर्फ अपने और अपनों से जुड़ा था। स्कूली छुट्टियां और लॉक डाउन मतलब आना जाना बंद। खैर मेरे लिए यह बहुत संकट का विषय नहीं था। आलसी स्वभाव का हूँ। किताबों और मोबाइल में अच्छा खासा समय बीत जाता था। सोचा कि कुछ दिनचर्या ही सुधारी जाए ,तो यूटूब पर योग के वीडियो देखकर कुछ आसनों का चुनाव हुआ और बाकायदा  45-50 मिनट की व्यायाम कक्षा चलने लगी। इसमे मेरी बिटिया नव्या जी भी बाद में प्रेरित होकर शामिल हो गयीं। 
           लेकिन जैसा कि ऊपर कहा यह तो अपना और अपनों का किस्सा है। दूसरा किस्सा उनका है जो अपने घरों से सैकड़ों कोस दूर थे, रोजी रोटी के लिए । कुछ अकेले थे तो कुछ सपरिवार थे। यह भारत की आबादी का एक बहुत बड़ा कार्य बल था, जिसे हम आज कल की औद्योगिक भाषा मे human-resource कहते हैं। कल कारखानों के अचानक बंद होने पर इनके लिए अजीब स्थिति आ गई। बड़ी और नामी कंपनियों मे छँटनी शुरू हो गयी। उपरी कार्यबल तो अपनी बचत और फैमिली support system के बल पर काफी दिन तैर गया लेकिन निचले स्तर पर लोग बहुत परेशान हुए। कुछ जगह कल कारखानों के मालिकों ने भोजन और रहने का इंतजाम तो किया, लेकिन लोगों मे डर अनजानी बीमारी के खतरे को लेकर अधिक था। इसलिए बड़ी संख्या मे लोगों ने अपने घरों को लौटना शुरू किया। जिससे जैसे बन पड़ा, वो वैसे ही निकल पड़ा। यह एक अभूतपूर्व  घटना थी, जो स्वतंत्र भारत के इतिहास मे विभाजन के बाद शायद ही कभी इस कारण से हुई हो। आगे फिर कभी 🙏🙏।। 

शनिवार, 23 अप्रैल 2022

अनाम

शब्द, सीमा और संगीत।  इन तीनों मे कोई आपस की बात है क्या 🧐। संगीत से शुरू करें, इसमें लय, ताल और छंद, राग के साथ मौजूद रहता/ती है। https://youtu.be/gYeTmTOVESs
सीमा, असीम के साथ बंधी आती है।  शब्द, संगीत की मर्यादा तय करते हैं 🤏। आज के हाशिए मे एक  यही तस्वीर हासिल हुई है ,जिसे ऊपर ही टाँक दिया है। आप इसको शब्द की सीमा में बांध सकें तो बहुत अच्छा। 

शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

अज्ञेय की कविता

अज्ञेय की कविताएँ :

1
दीपावली का एक दीप

दीपक हूँ, मस्तक पर मेरे अग्निशिखा है नाच रही-
यही सोच समझा था शायद आदर मेरा करें सभी।
किन्तु जल गया प्राण-सूत्र जब स्नेह नि:शेष हुआ-
बुझी ज्योति मेरे जीवन की शव से उठने लगा धुआँ

नहीं किसी के हृदय-पटल पर थी कृतज्ञता की रेखा
नहीं किसी की आँखों में आँसू तक भी मैं ने देखा!
मुझे विजित लख कर भी दर्शक नहीं मौन हो रहते हैं;
तिरस्कार, विद्रूप-भरे वे वचन मुझे आ कहते हैं:

'बना रखी थी हमने दीपों की सुन्दर ज्योतिर्माला-
रे कृतघ्न! तूने बुझ कर क्यों उसको खंडित कर डाला?'

अमृतसर जेल, अप्रैल, 1938

2
 : काल स्थिति - 2

लेकिन हम जिन की अपेक्षाएँ
अतीत पर केन्द्रित हो गयी हैं
और भविष्य ही जिन की मुख्य स्मृति हो गयी है
क्यों कि हम न जाने कब से भविष्य में जी रहे हैं-
हमारा क्या
क्या इसलिए हमरा वर्तमान
वही नहीं है जो नहीं है?

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 31 अक्टूबर, 1969       

 3  : काल स्थिति - 1

जिस अतीत को मैं भूल गया हूँ वह
अतीत नहीं है क्यों कि वह
वर्तमान अतीत नहीं है।
जिस भविष्य से मुझे कोई अपेक्षा नहीं वह
भविष्य नहीं है क्यों कि वह
वर्तमान भविष्य नहीं है।
स्मृतिहीन, अपेक्षाहीन वर्तमान-
ऐसा वर्तमान क्या वर्तमान है?
वही क्या है?

बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 31 अक्टूबर, 1969

4
 निचले
हर शिखर पर
देवल:
ऊपर
निराकार
तुम
केवल...
 अज्ञेय द्वारा रचित  मात्र नौ शब्दों की कविता

साहित्य और समकालीन समाज

आज़,जैसी अफरा तफरी मची हुई है।उस संदर्भ में कुछ पुराने पन्नों पर उभरे हुए प्रासंगिक निबंध मिल जाते हैं, जो आज भी सोचने के लिए बाध्य करते हैं...